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यथा॒ विप्र॑स्य॒ मनु॑षो ह॒विर्भि॑र्दे॒वाँ अय॑जः क॒विभिः॑ क॒विः सन्। ए॒वा हो॑तः सत्यतर॒ त्वम॒द्याग्ने॑ म॒न्द्रया॑ जु॒ह्वा॑ यजस्व ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yathā viprasya manuṣo havirbhir devām̐ ayajaḥ kavibhiḥ kaviḥ san | evā hotaḥ satyatara tvam adyāgne mandrayā juhvā yajasva ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यथा॑। विप्र॑स्य। मनु॑षः। ह॒विःऽभिः॑। दे॒वान्। अय॑जः। क॒विऽभिः॑। क॒विः। सन्। ए॒व। हो॒त॒रिति॑। स॒त्य॒ऽत॒र॒। त्वम्। अ॒द्य। अग्ने॑। म॒न्द्रया॑। जु॒ह्वा॑। य॒ज॒स्व॒ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:76» मन्त्र:5 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:24» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:13» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर पूर्वोक्त कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सत्यतर) अतिशय सत्याचारनिष्ठ (होतः) सत्यग्रहण करनेहारे दाता (अग्ने) विद्वान् ! (यथा) जैसे कोई धार्मिक विद्वान् अथवा विद्यार्थी (विप्रस्य) बुद्धिमान् अध्यापक विद्वान् (मनुषः) मनुष्य के अनुकूल होके सबका सुखदायक होता है, वैसे (एव) ही (त्वम्) तू (अद्य) इसी समय (कविभिः) पूर्णविद्यायुक्त बहुदर्शी विद्वानों के साथ (कविः) विद्वान् बहुदर्शी (सन्) होके जिन (हविर्भिः) ग्रहण करने योग्य गुण, कर्म, स्वभावों के साथ (देवान्) विद्वान् और दिव्यगुणों को (अयजः) प्राप्त होता है, उस (मन्द्रया) आनन्द करनेहारी (जुह्वा) दान क्रिया से हमको (यजस्व) प्राप्त हो ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - जैसे कोई मनुष्य विद्वानों से सब विद्याओं को प्राप्त करके सबका उपकारक हो, सब प्राणियों को सुख दे, सब मनुष्यों को विद्वान् करके आनन्दित होता है, वैसे ही आप्त अर्थात् पूर्ण विद्वान् धार्मिक होता है ॥ ५ ॥ इस सूक्त में ईश्वर और विद्वान् के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति समझनी चाहिये ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे सत्यतर होतरग्ने ! यथा कश्चिद्धार्मिको विद्वान् विद्यार्थी वा विप्रस्य मनुषोऽनुकूलो भूत्वा सुखकारी वर्त्तते, तथैव त्वमद्य कविभिः सह सन् यया हविर्भिर्देवानयजस्तया मन्द्रया जुह्वाऽस्मान् यजस्व ॥ ५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यथा) येन प्रकारेण (विप्रस्य) मेधाविनः (मनुषः) मननशीलस्य मानवस्य (हविर्भिः) आदेयैर्गुणकर्मस्वभावैः सह (देवान्) विदुषो दिव्यगुणान् वा (अयजः) (कविभिः) पूर्णविद्यैः क्रान्तदर्शनैः (कविः) क्रान्तदर्शनो विद्वान् (सन्) वर्त्तमानः (एव) निश्चये (होतः) सर्वसुखप्रदातः (सत्यतर) अतिशयेन सत्यस्वरूप (त्वम्) परमात्मा विद्वान् वा (अद्य) अस्मिन् दिने (अग्ने) ज्ञानप्रद विद्वन् (मन्द्रया) आह्लादकामनाविज्ञानप्रदया स्तुत्या (जुह्वा) आदानक्रियाकौशलया बुद्ध्या (यजस्व) सुखानि देहि ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - यथा कश्चिन्मनुष्यो विद्वद्भ्यो विद्यां प्राप्य सर्वोपकारी भूत्वा सर्वान् प्राणिनः सुखयित्वा मनुष्यान् विदुषः कृत्वानन्दति तथैवाप्तो मनुष्यो वर्त्तते इति वेद्यम् ॥ ५ ॥ अत्रेश्वरविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसे एखादा माणूस विद्वानांकडून सर्व विद्या प्राप्त करून सर्वांवर उपकार करतो. सर्व प्राण्यांना सुख देतो. सर्व माणसांना विद्वान करून आनंदित होतो. तसेच तो आप्त अर्थात पूर्ण विद्वान धार्मिक असतो. ॥ ५ ॥